कोरोना वायरस - दो बड़ी गलतियां जिन्होंने बदल दी भारत की तस्वीर -
कोरोना वायरस - दो बड़ी गलतियां जिन्होंने बदल दी भारत की तस्वीर -
कोरोना पर सामने आ रहे व्यंगचित्रो अथवा कोट्स की बात करे तो एक ऐसा कोट विशेष रूप से उल्लेखनीय हो जाता है जो कोरोना के कारण प्रतिदिन बदल रही भारत की तस्वीर की पूरी दास्ताँ बयां कर देता है | ये कोट है " खता पासपोर्ट की थी ,सजा राशनकार्ड को मिली " ,बेशक भारत सरकार कोरोना के विरुद्ध अपनी लड़ाई को सफल बताते हुए अपनी पीठ थपथपाये ,समर्थक अपने नेता और सरकार का गुणगान करे और पत्रकारिता को मिशन के स्थान पर केवल व्यापार बना देना वाला इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया सरकार को आईना दिखाने के स्थान पर सरकार द्वारा उपलब्ध करवाया गया आईना ही 136 करोड़ भारतीयों के सामने रखे लेकिन इससे वो सब कुछ बदल जाने वाला नहीं जो घटित हो चुका है | वर्तमान भारत का इतिहास जब भी लिखा जाएगा उसमे भारत सरकार की उन दो बड़ी गलतियों का जिक्र अवश्य होगा जिन्होंने पूरे भारत की तस्वीर को बदल दिया |
ये तो रेकार्डेड है कि भारत में कोरोना का पहला मामला केरल में 30 जनवरी 2020 को वूहान यूनिवर्सिटी से आये एक छात्र के रूप में सामने आ चुका था | में यहाँ इस बात पर अधिक फोकस नहीं करूँगा कि चीन में ये कब शुरू हुआ और उसने विश्व को इसके बारे में कब बताया लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की टाइम लाइन का जिक्र अवश्य करना चाहूंगा | विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 31 दिसंबर 2019 को वूहान म्युनिसिपल हेल्थ कमीशन ने वूहान में फैली महामारी के बारे में सूचित कर दिया था और इस महामारी के कारण के रूप में नोवल कोरोना वाइरस की पहचान की थी | फिर 5 जनवरी 2020 को उसने नए वायरस पर फर्स्ट डिजीज ऑउटब्रेक न्यूज पब्लिश की थी जिसमे रिस्क एसेसमेंट के साथ एडवाइस भी दी गयी थी और 10 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एक विस्तृत टेक्नीकल गाइडलाइंस का पैकेज जारी करते हुए विश्व को ये बता दिया गया था कि कोरोना वायरस की पहचान ,इसकी जांच और इससे संक्रमित मरीजों को किस प्रकार ट्रीट किया जायेगा | ये गाइडलाइन संगठन के रीजनल इमरजेंसी डायरेक्टर्स के साथ साझा की गई जिन्होंने इसे प्रत्येक देश में स्वास्थ्य संगठन के प्रतिनिधियों से साझा किया | 14 जनवरी को उन्होंने इसके बड़े पैमाने पर प्रसरण के खतरे से आगाह करवाया | 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में कोरोना संक्रमण के 7818 मामले कन्फर्म किये गए जिनमे 82 मामले चीन के बाहर 18 देशो में थे ,इस रिपोर्ट में उन्होंने एक बार फिर विश्व को हाई रिस्क की चेतावनी दी | 3 फरवरी को स्वास्थ्य संगठन ने कमजोर मेडिकल फेसिलिटीज वाले देशो के लिए स्ट्रेटिजिक प्रिपेयर्डनेस एन्ड रेस्पोंस प्लान जारी किया और अंततः 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपना ये आकलन जारी किया कि कोविड -19 वैश्विक महामारी का रूप ले सकता है | इस टाइम लाइन का जिक्र करने के पीछे उद्देश्य यही है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोना वायरस के खतरे से समय रहते ही पूरे विश्व को अवगत करवा दिया था |
फरवरी माह पूरा गंवाया और मार्च में भी बहुत देर से जागे
विश्व के अन्य देशो ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी को किस रूप में लिया ये तो वही जाने लेकिन ये हमने देखा कि भारत सरकार शूरवीरो ने कोरोना की जरा भी परवाह नहीं कि अन्यथा 30 जनवरी को केरल में कोरोना की दस्तक सुन लेने के बाद तो उन्हें तुरंत एहतियाती कदम उठा लेने चाहिए थे | लेकिन दरअसल भारत सरकार तो कोरोना से सुरक्षा से भी अधिक चार जरुरी कामो में व्यस्त थी | इनमे दो कामो पर तो सरकार पहले से ही लगी हुयी थी ,पहला एनपीआर और एनआरसी को येनकेन लागू करने का और दूसरा मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराकर सत्ता पर काबिज होने का | दूसरे दो काम अमेरिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की आवभगत और केंद्रीय बजट की तैयारियां थे | ज्ञात रखना चाहिए कि फरवरी माह में कोरोना संक्रमितों के केवल दो और मामले भारत में सामने आये थे और ये दोनों भी वूहान यूनिवर्सिटी से आये छात्र ही थे | कुल तीन मामलो के साथ भारत सरकार निश्चिन्त नजर आ रही थी ,ये निश्चिंतता मार्च की शुरुवात में भी बनी रही जबकि 4 मार्च को 22 नए मामले सामने आ चुके थे जिनमे इटेलियन टूरिस्ट ग्रुप के 14 कोरोना संक्रमित सदस्य भी शामिल थे | 15 मार्च को कोरोना संक्रमितों की संख्या 100 को पार कर चुकी थी और उल्लेखनीय बात ये है कि ये सभी वे लोग थे जो संक्रमित देशो की यात्रा करके भारत लोटे थे | एक सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि विदेशो से आने वाले लोग भारत में कोरोना लेकर आ रहे है लेकिन भारत सरकार इसे नजरअंदाज कर संसद के बजट सत्र में लगी रही जहँ जहाँ उन्हें भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने के लिए जरुरी बिल पास करने थे | खैर 20 मार्च को मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार का तख्ता पलट कर भाजपा सरकार ने अपना एक लक्ष्य तो पूरा कर लिया लेकिन 15 मार्च से 28 मार्च के बीच कोरोना संक्रमितों की संख्या 10 गुनी अर्थात 100 से बढ़कर 1000 हो चुकी थी |
बेशक भारत सरकार अपने पक्ष में ये दलील दे सकती है कि उसने 21 जनवरी से ही चीन से हवाई यात्रा के जरिये आने वाले यात्रियों की थर्मल स्क्रीनिंग शुरू कर दी थी जिसे शुरू में सात हवाई अड्डों और जनवरी के आखिर तक 20 हवाई अड्डों तक बढ़ा दिया गया था ,फरवरी में थाईलैंड ,सिंगापूर ,हांगकांग ,जापान ,साउथ कोरिया ,नेपाल ,विएतनाम ,इंडोनेशिया और मलेसिआ से आने वाले यात्रियों की भी थर्मल स्क्रीनिंग शुरू की गयी | लेकिन ये कितनी कारगर रही इसका अंदाजा 30 जनवरी को केरल में डिटेक्ट किये गए पहले कोरोना संक्रमित से लग जाता है ,जाहिर है वूहान से आये इस छात्र की भी तो किसी एयरपोर्ट पर थर्मल स्क्रीनिंग की गयी होगी | इस समय कांग्रेस लीडर शशि थरूर ने इस बात की आशंका व्यक्त की थी कि असिम्पटोमेटिक इन्फेक्शस लोग थर्मल स्क्रीनिंग में सामने नहीं आएंगे ,और ऐसा हुआ भी होगा लेकिन भारत सरकार ने इस आशंका को भी गंभीरता से नहीं लिया जबकि इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च द्वारा भी केवल हवाई अड्डों की स्क्रीनिंग को नाकाफी बताया था | 3 मार्च को भारत सरकार ने नए वीजा जारी करना बंद किया साथ ही इटली ,जापान ,ईरान और साउथ कोरिया के नागरिको को जारी वीजा निरस्त किये,फिर 13 मार्च को डिप्लोमेटिक ,ऑफिशियल वीजा छोड़कर सभी वीजा निरस्त किये गए लेकिन संक्रमित देशो से लौटने वाले भारतीयों के वीजा 14 दिन क्वारेंटाइन की शर्त के साथ जारी रहे | महत्वपूर्ण बात ये है कि भारत सरकार ने 173 पॉजिटिव मामले सामने आने और 4 संक्रमितों की मृत्यु के बाद 22 मार्च को जाकर सभी अंतराष्ट्रीय उड़ानों को निरस्त किया और शुरुवात में ये आदेश केवल एक सप्ताह के लिए था | क्या ये बहुत बड़ी गलती नहीं थी ?? मेरी राय में तो थी क्योंकि भारत तो कोरोना का उद्गम स्थल था ही नहीं यहाँ तो कोरोना प्लेन में सवार होकर आया ,इसलिए दोष पासपोर्ट का था जिसे नजरअंदाज किया सरकार ने ,और इसके पीछे एक कारण ये भी हो सकता है कि क्योंकि शशि थरूर ने थर्मल स्क्रीनिंग पर शुब्हा प्रकट किया था ,अब भला आजादी के बाद के 80 प्रतिशत वर्षो में भारत का शासन चलाने वाली नासमझ कांग्रेस के किसी लीडर की बात पर सर्वगुणनिधान और त्रिकालदर्शी भारत सरकार क्यों कर तवज्जो देती | लेकिन इस बात की तो कल्पना की ही जा सकती है कि यदि फरवरी में ही ये कदम उठा लिया जाता तो भारत कितनी बेहतर स्थिति में होता |
पूरे देश को बंद करना क्यों कर उचित कहा जा सकता है ?
22 मार्च को भारत सरकार ने देश के 22 राज्यों और यूनियन टेरेटरीज के 82 जिलों में पूरी तरह लॉकडाउन करने का निर्णय लिया जहाँ कोरोना संक्रमित थे ,23 मार्च को केंद्र और राज्य सरकारों ने 75 जिलों में लोकडाउन करने की घोषणा की जहाँ कोरोना संक्रमित थे | और 24 मार्च को प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी ने मध्यरात्रि से पूरे देश को 21 दिनों के लिए बंद करने का अपना निर्णय पूरे देश को सुना दिया | 14 अप्रैल तक के इस पहले लोकडाउन की अवधि में भारत में संक्रमितों की संख्या 10 हजार पर पहुँच चुकी थी जबकि मरने वालो की संख्या 500 से कुछ कम थी |
क्या 24 मार्च को भारत में कोरोना पेनेडेमिक की स्थिति वाकई ऐसी थी कि सरकार के पास पूरे देश को पूर्णतया बंद करने के अलावा और कोई चारा नहीं था ? ये सवाल ऐसा है जिस पर चर्चा किया जाना जरुरी है , क्योंकि यदि कोरोना के पहले से ही डगमगा रही भारत की अर्थव्यवस्था में आज यदि वर्ष 2020 -21 के लिए -5 जीडीपी की बात कही जा रही है तो उसका मुख्य कारण लॉकडाउन ही है ,यदि आज पूरे देश में प्रवासी श्रमिकों में अफरातफरी का माहौल है तो उसका प्रमुख कारण लॉकडाउन ही है ,क्योंकि वो लॉकडाउन ही है जिसने लाखो की संख्या में स्किल्ड लोगो को बेरोजगार कर जीवन यापन के लिए मनरेगा या अन्य छोटे मोटे काम करने पर मजबूर कर दिया है , और हमारे सामजिक ताने बाने को विच्छिन्न कर देने का श्रेय भी लॉकडाउन को ही है | देखिये भारत में कुल 731 जिले है जिनमे से 23 मार्च को 75 कोरोना संक्रमित जिलों को चिन्हित कर लॉकडाउन कर दिया गया था ,वस्तुत ये लॉकडाउन भी बिना किसी पुख्ता योजना बनाये ही किया गया था लेकिन फिर भी ये इसलिए स्वीकार किया जा सकता है कि इससे भारत का केवल 10 % हिस्सा ही प्रभावित हो रहा था देश का 90 % हिस्सा गतिशील था और इसमें भी विभिन्न राज्यों के कुछ ही जिले शामिल थे अर्थात राज्यों में भी गतिविधियां बेहद आंशिक रूप से ही प्रभावित होनी थी | अब यदि पूर्ण लॉकडाउन के समर्थन में ये तर्क दिया जाए कि इससे संक्रमण को फैलने से रोकने में मदद मिली तो वो तो आंकड़े बता रहे है कि पहले लॉकडाउन की अवधि में ही हम 22 मार्च के 173 से 10 हजार तक पहुंचे और चौथे लॉकडाउन में संक्रमितों की संख्या 1. 10 लाख से ऊपर है | अब एक तर्क ये भी दिया जा सकता है कि तब्लीगी जमात के लोग भी कोरोना संक्रमण के केरियर बने तो यहाँ मै ये अवश्य कहना चाहूंगा कि जमात के दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में 450 से अधिक विदेशी नागरिक शामिल हुए थे जिनके कारण ही भारतीय जमाती संक्रमित हुए होंगे और ये कार्यक्रम मार्च में आयोजित हुआ था | अब यदि भारत सरकार फरवरी में ही जब पूरे देश में कोरोना के केवल तीन मामले थे अपनी अंतराष्ट्रीय सीमाओं को सील करने और अत्यावश्यक वीजा को छोड़कर सभी वीजा निरस्त करने का निर्णय ले लेती तो विदेशी जमाती क्यों कर निजामुद्दीन मरकज के कार्यक्रम में शामिल हो सकते थे | मेरी राय में 24 मार्च को पूरे देश को बिना किसी योजना लॉकडाउन करने का लिया गया निर्णय वो दूसरी सबसे बड़ी गलती थी इसे इतिहास में अवश्य दर्ज किया जाएगा |
क्या होना चाहिए था ??
136 करोड़ की आबादी वाले इस विशाल देश में जिसमे विश्व के कई देश समा सकते है यदि कोरोना महामारी के यदि 1. 10 मामले ही सामने आये हो ,यदि मृत्यु दर 3 % ही हो और रिकवर होने की दर यदि 37 % हो तो निश्चित रूप से अपनी पीठ थपथपाई जानी चाहिए और इसके लिए केंद्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारों के प्रयासों ,हमारे सभी कोरोना योद्धाओ जिन्होंने सीमित संसाधनों और चिकित्सीय सुविधाओं के बावजूद पूर्ण समर्पण से कार्य किया और विशेषकर सभी भारतीयों जिन्होंने संकट की इस घडी में ये सन्देश पूरी मुखरता के साथ प्रस्तुत किया कि हम सब भारतीय एक है की जितनी सराहना की जाए उतनी कम है | जब जान की बात आयी तो चाहे वो विभिन्न राजनैतिक दल रहे हो या विभिन्न धर्म सम्प्रदाय के लोग रहे हो सभी ने एक साथ मिलकर इस लड़ाई को लड़ा लेकिन समस्या रही जहाँ के मोर्चे पर जहाँ लड़ाई दरअसल अपने राजनैतिक अथवा सामजिक भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हुए लड़ी गयी और इसलिए आर्थिक मोर्चे पर फिलहाल तो हम इस लड़ाई में पिछड़ते हुए नजर आ रहे है | किसी विडिओ में एक मजदूर का ये कथन कि कोरोना से नो नहीं लेकिन भूख से अवश्य मर जाएंगे ये बताने के लिए पर्याप्त है कि लॉकडाउन की विभीषिका ने भारत को कितना प्रभावित किया है और ये भी कि लगभग सवा दो महीने तक चलने वाला ये लॉकडाउन देश को कितने साल पीछे धकेल देगा |
जरुरी ये था कि लॉकडाउन चरणबद्ध तरीके से एग्जिट तक की योजना बनाकर किया जाता और कोरोना की भयावहता को भांपते हुए ये योजना ट्रम्प की यात्रा के बाद फरवरी के अंत में और नहीं तो मार्च के प्रथम 10 दिनों में अवश्य बना ली जानी चाहिए थी | एक बढ़िया अवसर था संसद के बजटकालीन का सत्र का जिसमे अन्य बिलो को पास करवाने पर फोकस करने के स्थान पर सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ खुले दिल से कोरोना संकट पर चर्चा कर कोई पुख्ता योजना बनाई जाती | भारत में न तो अर्थशाष्त्रियो की कमी है और न ही देश हित में बेहतर योजनाए बनाने वाले लोगो की ,यदि ऐसा किया जाता तो संभवतया कम मृत्यु दर और बेहतर रिकवरी रेट के साथ हम गर्व से विश्व को ये ही बता सकते थे कि हमने अपनी जीडीपी को भी 5. 5 % पर स्थिर रखा | सरकारी सूत्र बार बार पूर्ण लॉकडाउन की वकालत करते हुए एक ही बात कहते है कि यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो संक्रमितों की संख्या 20 लाख तक पहुँच सकती थी ,लेकिन ये ठीक वैसी की कल्पना है जैसी में ये कहते हुए करू कि यदि भारत ने फरवरी में ही अपनी जल ,थल और नभ सीमाओं को सील कर दिया होता तो भारत में कोरोना के मामले 100 भी नहीं होते और नहीं लॉकडाउन की जरुरत पेश आती | ये मान लिया जाना चाहिए कि भारत में यदि कोरोना के मामले तुलनात्मक रूप से कम है तो उसके लिए देश के नागरिको का मजबूत इम्यून सिस्टम और दृढ इच्छा शक्ति है जो हमारी 37 % से अधिक रिकवरी रेट में नजर आती है |
सामाजिक मोर्चे पर कैसे हुआ नुकसान
कोरोना के चलते किये गए लॉकडाउन के कारण देश को कितना आर्थिक नुकसान हुआ ये तो आरबीआई गवर्नर ने ही ये कहते हुए बता दिया कि वित्तीय वर्ष 2020 -21 में हमारी जीडीपी नेगेटिव रहने वाली है | सामाजिक बदलाव के रूप में जो सबसे बड़ी बात मुझे नजर आती है वो है प्रान्तीयवाद का पूरी मुखरता के साथ सामने आना , और ये प्रवासी श्रमिकों की दारुण दशा में नजर आता है | दरअसल पहले लोकडाउन की अवधि में तो श्रमिकों के पास अपनी कुछ बचत और नियोक्ता से मिला मार्च का भुगतान था जिससे उसने इस उम्मीद के साथ अपने स्थान पर ही रहना स्वीकार कर लिया कि लॉकडाउन ख़त्म हो जाएगा और उसका रोजगार पुनः शुरू हो जाएगा लेकिन फिर दूसरा और जब तीसरे लॉकडाउन की घोषणा हुयी तो भूखो मरने की स्थिति का सामना कर रहे प्रवासी श्रमिकों के सब्र का बाँध टूटकर लॉकडाउन की परवाह किये बिना सड़को और रेल्वे ट्रेक्स पर बहने लगा | और फिर शुरू हुआ श्रमिकों की पहचान यूपी ,बिहारी ,उड़िया या मारवाड़ी के रूप में करने का | अब वो श्रमिक देश की जिम्मेदारी नहीं बल्कि उस प्रान्त विशेष की जिम्मेदारी बन गया जो उसका मूल निवास स्थान था | ये घटनाक्रम लोगो को सामान्य लगता है क्योंकि इसके पीछे प्रान्तीयवाद के जिस विचार को पुख्ता कर दिया गया उसकी गंभीरता का आकलन करने का समय इनके पास नहीं है |
जब आप नोटबंदी करते है तो लोगो को कुछ दिन अवश्य देते है ताकि लोग पुराने नोट बदलवा सके ,जब आप जीएसटी की घोषणा करते है तो आप इसे लागू करने के लिए कुछ दिन अवश्य देते है लेकिन जब आप पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करते है तो लोगो के पास केवल चार घंटे का समय होता है खुद को सुरक्षित स्थान पर पहुंचने के लिए | क्यों नहीं लोगो को 2-4 दिन का समय दिया गया और जो श्रमिक ट्रेन अब चलाई जा रही है उस अवधि में अतिरिक्त ट्रेन्स के रूप में चलाई जाती | उस समय लगभग 550 के करीब ही संक्रमितों के कुल मामले थे लिहाजा संक्रमण का खतरा आज से तो कम ही था जबकि ताजा मामलो में प्रवासी श्रमिकों के मामले अधिक सामने आ रहे है | यदि देश का प्रधानमंत्री पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करता है तो इसमें बेरोजगार हो गए श्रमिकों को सुरक्षित उनके घर पहुंचाने की प्राथमिक जिम्मेदारी भी उसी की थी न कि ये कहा जाता कि राज्य अपने अपने श्रमिकों के लिए ट्रेन्स बुक करवाए |
महेंद्र जैन
23 मई 2020
नोट -इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है जिनसे आपका सहमत होना जरुरी नहीं
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